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आज मैं जो भी लिखूंगा जो भी लोग पढ़ेंगे उन्हें स्वयं को समाज से अलग क्यों समझे!
इस बात का एहसास करेंगे
हम समाज मे रह कर भी समाज से अलग क्यों है देश के प्रति मर मिटने की भावना, कुछ कर गुजरने की भावना ,हर संकट से भिड़ जाने की भावना ,सही और गलत में अंतर करने की भावना ,सही को सही और गलत को गलत कहने की भावना ,नेतृत्व की भावना , अपने राष्ट्र के हित में सोचने की भावना , और सबसे बड़ा हर फैसले दिल से लेनेकी भावना का हमारे अंतर्मन में निहित क्यों होती है आईये हम जानते हैं हम क्यों अलग है–
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ भारत की ही नही वरन विश्व का सबसे बड़ा संघ, और इसी संघ द्वारा संचालित विद्यालय सरस्वती शिशु विद्या मंदिर जिसका मैं शिशु कक्षा से छात्र रहा नित प्रति नीली पेंट और सफेद शर्ट लाल रंग की टाई, कमर पे नीली पट्टी का बेल्ट, जेब मे बाई तरफ सफेद रुमाल जो हमारी स्वच्छता भी भावना को दर्शाता है और उसपर लगा एक बिल्ला स्वमेव मृगेन्द्रता लिखा गया और शेर के दांत गिनता एक बच्चा , जो हमारी तेज़ तर्रार और अनुशाषित भावना का द्योतक जिसे हम कभी अपने हृदय से अलग नही होने देते है। स्वमेव मृगेन्द्रता का मतलब स्वयं ही सिंह बनो स्वयं को दृढ़ संकल्पित बनाने में सहायक।
दोस्तों जब हम सभी विद्यालय पहुचते थे। सबसे पहले आया को प्रणाम मैया, हां इसी भावना से हमारा दिन शुरू होता है सभी आचार्य को चरण स्पर्श करते हुए वंदना स्थल पे बैठ जाना। आचार्य हम सभी को आचार्य कहते थे छोटे बच्चे तो अचार जी भी कहते थे। उनसे बार बार बुलवाने में बड़ा मज़ा आता था। हम लोग अपने विद्यालय में सभी को भैया और बहन कह कर ही बुलाते थे लड़को के नाम के आगे भैया और लड़की के नाम के आगे बहन सदैव लगता था , एक मां सरस्वती का एक चित्र रखा रहता था सबसे पहले हम सब बैठा जाते थे और प्रातः स्मरण के साथ हमारी वंदना का आरंभ होता था।
“कराग्रे वास्ते लक्ष्मी कर मद्धे सरस्वती……”
याद है ना और फिर प्रातः वंदन के बाद प्रमुख आचार्य माँ सरस्वती के चित्र का अनावरण करते थे, और अगरबत्ती जलाते थे, और फिर आरम्भ होती थी हमारी प्रार्थना, प्रातः स्मरण, एकात्मता स्त्रोतम गीता के सार , एकता मंत्र, राम चरित मानस , सरस्वती वंदना और ब्रम्हनाद कुछ छूट गया हो तो कमेंट में लिख देना भाईयो और ब्रम्हनाद में बड़ा मजा आता था ओम का उच्चारण करने में कौन कितनी देर तक ओम का उच्चारण करता है देखा जाता था और फिर शांति पाठ और हाँथ मलते हुए चेहरे पर लगाते हाँथ बंधना एच बीच बीच मे हम आंख खोल कर देख लेते थे कि कौन ब्रम्हनाद कर रहा कौन नही, लगभग एक घंटे की प्रार्थना के बाद आचार्य जी एक बोध कथा सुनाते थे बोध कथा यानी प्रेरणा दायक कहानी और उस दिन के महत्व के बारे में बताते थे या कोई त्योहार या जिस किसी का जन्म हुआ हो उस महापुरुष का जीवन वृत्त वो भी संक्षिप्त में और फिर सेनापति आज्ञा देता था अपनी अपनी कक्षा में जाने का , सेनापति के बारे में मैं अभी नही बताउगा अगले अंक में बताऊंगा।
कक्षा में जाते ही पहली बेला है बेला सदाचार की यानी दिन का पहला विषय सदाचार का जिसमे अछि अछि बाटे बताई जाती और कहानी सुनाई जाती बहुत अच्छा लगता था जब इसकी कक्षा लगती थी नाखून बड़े छोटे बाल नाखून कटे यह सब चेक होता था और रोज हिंदुस्तान के इतिहास के बारे में महापुरुषों के बारे में बताया जाता था इस बेला में ,और फिर इसके बाद अन्य विषयों की बेला होती थी चार बेला होने के बाद भोजन बेला हैं यानी लंच टाइम अरे मैं ये इंग्लिश में क्यों बात रहा हमे इंग्लिश बोलना मना था ,हम सब संस्कृत के शब्दों का इस्तेमाल करते थे छोटी छोटी बातों के लिए ये वही जनता है जो इस विद्यालय में पढ़ा होगा ,भोजन बेला की घंटी जैसे ही मैया बजाती थी मैया जानते होना हम कक्षा प्रमुख के आदेश पर फिर बाहर निकलते थे सभी लोग मैदान में इकट्ठा होते थे ज़मीन पर बैठ जाते थे और फिर तीन बहने मिलकर भोजन मंत्र बोलती थी हम सब उसका उच्चारण करते थे और भोजन मंत्र वोभी बड़ा वाला
“ओम यनतुनदयो वरसन्तु पार्जन्या……”
और इसके पूरा होते सेनापति की आज्ञा से सभी एक साथ भोजन शुरू करते थे बहुत अच्छा लगता था , एक परिवार सा सभी भोजन करते थे कभी एक दूसरे को खिलाते थे भोजन के बाद जो समय बचता था उसमें थोड़ा खेलते थे बस और वापस से बेला लगती थी और हम सब क्रम बद्ध कक्षा में चले जाते थे , अगले विषयों के बाद सबसे खास बेला शुरू होती थी क्रीड़ा की बेला हम सबको ये बहुत अच्छी लगती थी एक बढ़कर एक खेल जैसे कबड्डी, खोखो ,मैं वीर बाँदा बैरागी, लंबी कूद ,ऊंची कूद, और अगर मैं भूल गया हूं तो आपको याद आ ही गया होगा , और ये बेला बहुत छोटी लगती थी जल्दी खत्म हो जाती थी फिर भी अंत मे अंतिम बेला लेकिन घंटी बजते ही कोई भाग नही जाता था। हम सब वापस मैदान में खड़े होते थे वो भी क्रमबद्ध छोटी लंबाई से बड़ी और एक हाथ दूर होकर सेनापति और अध्यक्ष और प्रधानाचार्य भी होते थे सभी आचार्य अपनी अपनी कक्षा के पीछे जो जिस कक्षा का कक्षाचर्या था और फिर तीन बहने सामने और कुछ थोड़ी व्यायाम होता था और फिर प्रधानाचार्य कुछ खास बात बताते थे या नया आदेश सुनाते थे और सेनापति के आदेश के बाद वंदे मातरम यानी राष्ट्रीय गीत होता था और वो भी पूरा, धीरे धीरे सभी अपनी कक्षा में जाते थे और एक एक कक्षा को छोड़ा जाता था घर जाने के लिए लेकिन एक बात खास होती थी हम फिर आचार्य के पैर छूकर ही वापस घर जाते थे
यही दिनचर्या हमारे दैनिक जीवन का हिस्सा थी, और हम सबका इसी दैनिक कार्यों का आज भी अनुसरण करते थे और है, जब हम महापुरुषों के बारे में त्योहारों के बारे में विस्तार में उसके महत्व को और महात्म्य को बताया जाता था, यही कारण है कि हम समाज से अलग है क्यों कि हमे शुरू से तैयार किया जाता है। एक अनुशाषित और धार्मिक जीवन के लिए ऐसे जीवन मे क्या कोई कभी किसी का बुरा करने की सोच सकता है सही कहा गया है कि संस्कार ही जीवन की दशा बदलते है और यही सरस्वती शिशु विद्या मंदिर के छात्रों को समाज से अलग करती है जैसे कि मैं और आप सब।
तो मित्रों ये थी हमारे बीते हुए कल की पुरानी यादें, जिसे मैंने आपसे साझा की। येसे ही रोचक और महत्वपूर्ण जानकारी के लिए हमारी वेबसाइट पर निरंतर आते रहे और अपने दोस्तों ,परिवार वालों और सभी प्रियजनों तक भी ये महत्वपूर्ण जानकारी पहुचायें। धन्यवाद।

नितीश श्रीवास्तव
कायस्थ की कलम से
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