पं० राम प्रसाद बिस्मिल और अशफ़ाक़ उल्ला खान के दोस्ती की कहानी आँखे नम कर देती है :: Untold real story of “Revolutionary”

By | April 17, 2020
बिस्मिल और अशफ़ाक़ (हिंदी में हेल्प पाओ)

स्वतंत्रता संग्राम के समय में अगर कोई दोस्ती का नाम लेता था 

तो जुबाँ पर बिस्मिल और अशफ़ाक़ होता था 

दोस्तों हमारे समाज मे मित्रता का रिश्ता सबसे अनोखा रिश्ता कहा जाता है और मित्रता अगर बचपन से हो तो और प्रगाढ़ कही जाती है। हमने बचपन से लेकर अब तक मित्रता की बहुत सी कहानिया सुनी होंगी और मित्रता की भी होगी लेकिन जैसे कृष्णा सुदामा की कहानी, अनेक राजाओ की मित्रता की लेकिन आज के परिवेश में मित्रता क्या कभी ऐसी हो सकती है कि मज़हब और इंसानियत से परे हो सकती है ,हां है एक ऐसी ही कहानी जिसके बारे में जानकर सीना गर्व से चौड़ा हो जाएगा ऐसे भाव जो आपके अंतर्मन को झकझोर कर रख देंगे आज की कहानी है एक कट्टर आर्य समाजी और और एक मुस्लिम की, शायद किसी के भी जीवन मे ऐसा न सुना होगा न देखा होगा। क्या वास्तव में ऐसा हो सकता है एक कट्टर आर्यसमाजी और एक मुस्लिम में मित्रता? असंभव है लेकिन यह सच है आइये हम आपका सरोकार कराते है एक ऐसी ही सच्ची कहानी से और ये कहानी है  — 
एक कट्टर आर्य समाजी राम प्रसाद बिस्मिल और एक मुस्लिम पठान परिवार में जन्मे अशफ़ाक़ उल्लाह खां जी की।
राम प्रसाद बिस्मिल अपनी आत्मकथा में लिखते है कि मैं मुसलमानों की शुद्धि करता था , आर्य समाज मंदिर मेरा निवास था किंतु अशफ़ाक़ ने कभी इस बात की चिंता नही की तुम अपने निश्चय में दृढ़ थे हिन्दू मुस्लिम का झगड़ा होने पर तुम्हारे मोहल्ले वाले तुम्हे खुल्लमखुल्ला गालियां देते थे तुम्हे काफिर के नाम से पुकारते थे पर तुम कभी उनके विचारों से सहमत नही हुए तुम एक सच्चे मुसलमान और देशभक्त थे, तुम्हे यदि जीवन मे कोई विचार आता था कि मुसलमानी को कोई अक्ल देता की वो हिन्दुओ के साथ मिलकर हिंदुस्तान की भलाई करते, तुम हमेशा मुझसे कहते थे कि तुम उर्दू में क्यों नही लिखते जो मुसलमान भी पढ़ सके तुमने देश भक्ति को भावना को पढ़ने के लिए ही हिंदी का अच्छा अध्धयन किया ।तुम्हारी इसी प्रगति ने।मेरे हृदय में पूर्ण विजय पा ली थी ।

(राम प्रसाद बिस्मिल की जीवन के वो अनछुए पहलू जो आपको झकझोर देंगे – क्लिक करें )

राम प्रसाद कहते थे कि अशफ़ाक़ का मुझपर अटल विश्वास था। अशफ़ाक़ राम प्रसाद बिस्मिल ही सिर्फ राम कहा करते थे एक कहानी का जिक्र करते हुए बिस्मिल ने कहा ” एक समय जब अशफ़ाक़ को हृदय कंपन का दौर हुआ तो अशफ़ाक़ अचेत हो गये अशफ़ाक़ के मुह से राम राम हाय राम हाय राम निकल रहा था पास खड़े भाई बंधु को आश्चर्य हो रहा था कि अशफ़ाक़ राम राम की रात लगाए है कुछ ने तो अल्लाह अल्लाह कहने की हिदायत भी दी लेकिन अशफ़ाक़ निरंतर राम राम कहे जा रहे थे तभी कोई मित्र वहां पहुंचा तब उसने राम नाम का भेज जाना और मुझे आकर सूचना दी मुझे तुरंत बुलाया गया मुझसे मिलने पर ही अशफ़ाक़ तो शांति मिली।
बिस्मिल लिखते है प्यारे भाई तुमको यह समझकर संतोष होगा कि जिसने अपने माता पिता की धन संपत्ति को देश सेवा में अर्पण करके उन्हें भिखारी बना दिया जिसने अपने सहोदर के भावी भाग्य को भी देश सेवा की भेंट किया हो। जिसने अपने तन मन धन सेकर अपना अंतिम बलिदान भी दे दिया हो उसने अपने प्रिय सखा अशफ़ाक़ को भी मातृभूमि की भेंट चढ़ा दिया ।
बिस्मिल आगे लिखते है ” परमात्मा ने मेरी पुकार सुन ली और मेरी इच्छा पूर्ण हुई मै मुसलमानों में से एक नवयुवक को निकल कर भारत वासियों को दिखला दिया जो सब परीक्षाओं में पूर्णतया उत्तीर्ण हुआ ।
19 दिसंबर 1927 को जामे शहादत पीने से तीन दिन पहले यानी 16 दिसंबर को शहीद अशफ़ाक़ ने वतन के नाम अपना पैगाम लिखा था जो इस प्रकार है
” मैं हिंदुस्तान की ऐसी आज़ादी की ख्वाहिशमंद था जिसमे गरीब खुशी और आराम से रहते और सब बराबर होते । खुदा मेरे बाद वह दिन जल्द लाये जब छतर मंजिल, लखनऊ में अब्दुल्ला मिस्री और धनिया चमार तथा किसान भी मिस्टर खलिकुजम जगत नारायण और नवाब महमूद के बराबर कुर्सी पर बैठे नज़र आये। मैं बहुत खुश हूं ।क्या मेरे लिए इससे बढ़कर कोई इज्जत हो सकती है कि सबसे पहला और अव्वल मुसलमान हूँ जो आज़ादी ए वतन की खातिर फांसी पर चढ़ रहा हूँ। मेरे भाईयो मेरा सलाम लो और इस नामुकम्मिल काम को जो हमसे बाकी रह गया है तुमको उसे पूरा करना है।
मैं अपने उन भाईयो से शुक्रिया के साथ रुखसत होता हूं जिन्होंने हमारी मदद जाहिर तौर पर या पोशीदा और उन्हें यकीन दिलाऊंगा की अशफ़ाक़ आखिरी दम तक सच्चा रहा और खुशी-खुशी मर गया और ख्यानते वतनी का इस पर कोई जुर्म नही लगाया जा सकता। 
दोस्तों इस दोस्ती को दागदार करने की मजिस्ट्रेट ऐनुद्दीन और सी०आई०डी० के पुलिस कप्तान खानबहादुर तसद्दुक हुसैन ने भरी कोशिश की लेकिन अशफ़ाक़ के सामने उन्हें मुँह की खानी  पड़ी उसका वृतांत कुछ इस तरह है –
यह एक ऐतिहासिक सच्चाई है कि काकोरी काण्ड का फैसला 6 अप्रैल 1926  को सुना दिया गया था। अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ और शचीन्द्रनाथ बख्शी को पुलिस बहुत बाद में गिरफ्तार कर पायी थी अत: स्पेशल सेशन जज जे०आर०डब्लू० बैनेट की अदालत में 7 दिसम्बर 1926 को एक पूरक मुकदमा दायर किया गया। मुकदमे के मजिस्ट्रेट ऐनुद्दीन ने अशफ़ाक़ को सलाह दी कि वे किसी मुस्लिम वकील को अपने केस के लिये नियुक्त करें किन्तु अशफ़ाक़ ने जिद करके कृपाशंकर हजेला को अपना वकील चुना। इस पर एक दिन सी०आई०डी० के पुलिस कप्तान खानबहादुर तसद्दुक हुसैन ने जेल में जाकर अशफ़ाक़ से मिले और उन्हें फाँसी की सजा से बचने के लिये सरकारी गवाह बनने की सलाह दी। जब अशफ़ाक़ ने उनकी सलाह को तबज्जो नहीं दी तो उन्होंने एकान्त में ले जाकर अशफ़ाक़ को समझाया और कहा –

“देखो अशफ़ाक़ भाई! तुम भी मुस्लिम हो और अल्लाह के फजल से मैं भी एक मुस्लिम हूँ इस बास्ते तुम्हें आगाह कर रहा हूँ। ये राम प्रसाद बिस्मिल बगैरा सारे लोग हिन्दू हैं। ये यहाँ हिन्दू सल्तनत कायम करना चाहते हैं। तुम कहाँ इन काफिरों के चक्कर में आकर अपनी जिन्दगी जाया करने की जिद पर तुले हुए हो। मैं तुम्हें आखिरी बार समझाता हूँ, मियाँ! मान जाओ; फायदे में रहोगे।”



इतना सुनते ही अशफ़ाक़ की त्योरियाँ चढ गयीं और वे गुस्से में डाँटकर बोले-

“खबरदार! जुबान सम्हाल कर बात कीजिये। पण्डित जी (राम प्रसाद बिस्मिल) को आपसे ज्यादा मैं जानता हूँ। उनका मकसद यह बिल्कुल नहीं है। और अगर हो भी तो हिन्दू राज्य तुम्हारे इस अंग्रेजी राज्य से बेहतर ही होगा। आपने उन्हें काफिर कहा इसके लिये मैं आपसे यही दरख्वास्त करूँगा कि मेहरबानी करके आप अभी इसी वक्त यहाँ से तशरीफ ले जायें वरना मेरे ऊपर दफा 302 (कत्ल) का एक केस और कायम हो जायेगा।”


इतना सुनते ही बेचारे कप्तान साहब (तसद्दुक हुसैन) की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गयी और वे अपना सा मुँह लेकर वहाँ से चुपचाप खिसक लिये। बहरहाल 13 जुलाई 1927 को पूरक मुकदमे (सप्लीमेण्ट्री केस) का फैसला सुना दिया गया – दफा 120 (बी) व 121 (ए) के अन्तर्गत उम्र-कैद और 396 के अन्तर्गत सजाये-मौत अर्थात् फाँसीका दण्ड दिया गया। तो दोस्तों ऐसे थे अपने अशफ़ाक़ जो अपनी दोस्ती के आगे धर्म को नहीं लाते थे। 
शाहजहाँपुर के आग्नेय कवि स्वर्गीय अग्निवेश शुक्ल ने यह भावपूर्ण कविता लिखी थी जिसमें उन्होंने फैजाबाद जेल की काल-कोठरी में फाँसी से पूर्व अपनी जिन्दगी की आखिरी रात गुजारते हुए अशफ़ाक़ के दिलो-दिमाग में उठ रहे जज्वातों के तूफान को हिन्दी शब्दों का खूबसूरत जामा पहनाया है :

जाऊँगा   खाली   हाथ  मगर, यह  दर्द साथ  ही जायेगा

जाने  किस दिन  हिन्दोस्तान, आजाद वतन कहलायेगा।

बिस्मिल हैं हिन्दू  कहते हैं, फिर  आऊँगा-फिर आऊँगा

ले   नया  जन्म  ऐ भारत माँ! तुझको  आजाद कराऊँगा।।

जी करता  है मैं भी  कह दूँ, पर मजहब  से बँध जाता  हूँ
मैं  मुसलमान हूँ पुनर्जन्म की   बात  नहीं   कह  पाता  हूँ।
हाँ, खुदा अगर मिल गया कहीं, अपनी झोली फैला दूँगा

औ’ जन्नत  के बदले उससे, यक  नया  जन्म  ही  माँगूँगा।।


एक मित्र ने अपने मित्र को इतनी बड़ी सौगात नही दी होगी जिससे वह आज भी भारत वासियों के दिल मे ही नही बल्कि पूरी दुनिया में सभी के दिलो पे राज कर रहा है। जिसे देश के लिए मर मिटने वालो और सम्मान पाने वाले लोगो की लिस्ट में सुनहरे अक्षरों से नाम अंकित कर दिया हो। 
धन्य है ऐसी मित्रता ऐसा समर्पण जिस पर सारा देश आज भी स्वयं को ऋणी मानता है।
(राम प्रसाद बिस्मिल की जीवन के वो अनछुए पहलू जो आपको झकझोर देंगे – क्लिक करें )

तो मित्रों ये थी हमारे अशफ़ाक़ और पं० राम प्रसाद बिस्मिल से सम्बंधित मित्रता की विशेष जानकारी, जिसे मैंने आपसे साझा की। येसे ही रोचक और महत्वपूर्ण जानकारी के लिए हमारी वेबसाइट पर निरंतर आते रहे और अपने दोस्तों ,परिवार वालों और सभी प्रियजनों तक भी ये महत्वपूर्ण जानकारी पहुचायें। धन्यवाद।
     नितीश श्रीवास्तव
    कायस्थ की कलम से
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