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अशफाक उल्लाह खाँ के फांसी से एक दिन पूर्व क्या हुआ था ?
दोस्तों बड़ी हिम्मत चाहिए होती है ऐसे संस्मरणों को शब्दों में पिरोने के लिए कई बार तो, दुख का भाव आकर हृदय को आकुल कर देता है और हांथो की उंगलियां स्वतः ही थम जाती है , नयन जल का हृदय में उठी भावनाओ का प्रतिबिंम्ब बनके छलक भी आता है लेकिन इससे क्या सभी को बताना, जो है अपनी भावनाओं पर नियंत्रण कर लिखना बहुत कष्टदायी होता है,
अब बात करते है देश की जंग ए आज़ादी में शहीद होने वाले मुस्लिम समुदाय के वीर क्रांतिकारी अशफ़ाक़ उल्लाह खाँ, एक धनी पठान परिवार में पले बढे इन्हे शायरी भी लिखने शौक था जिसमे ये अपना उपनाम हसरत लिखते थे। गांवों के एक्शन एवं काकोरी ट्रेन एक्शन में प्रमुख भूमिका निभाने वाले अशफाक को काकोरी केस के पूरक मुकद्दमे में फांसी की सज़ा सुनाई गई , तदनुसार 19 दिसंबर 1927 को ही अशफाकुल्लाह खां को फैजाबाद जेल में फंसी दिया जाना सुनिश्चित हुआ। दो दिन पूर्व यानी 17 दिसंबर को उनके वकील श्री कृपाशकर हजेला के साथ अशफाक के बड़े भाई श्री रियासत उल्लाह खां तथा कुछ छोटे भतीजे उनसे मिलने फैजाबाद जेल पहुंचे। अशफाक को देखकर बड़े भाई और भतीजे रोने लगे । इस पर अशफ़ाक़ तुरंत वकील साहब की ओर मुखातिब होकर बोले “हजेला साहब आप इन्हें क्यों साथ लाये है ज़रा सामने वाली बैरक की ओर देखिए उसमे तीन भाई कत्ल के जुर्म में बंद है डेढ़ सेर राब पर हुए एक झगड़े में वे तीनों फांसी पर चढ़ने वाले है। वे भी तो अपने माँ बाप के लाडले होंगे वे डेढ़ सेर राब के लिए जान दे सकते है तो क्या मेरा भारत माता की आज़ादी हेतु जान देना अनुचित है ? उन्होंने कहा आप सब को फक्र होना चाहिए कि मैं पहला मुसलमान हूँ जो इस तरह आज़ादी के लिए फांसी पा रहा हूँ।
हजेला साहब बुत की तरह चुपचाप उनकी बाते सुनते रहे कोई उत्तर न दे सके , इस पर अशफ़ाक़ बोले ” मेरी ख्वाईश है कि 19 की सुबह आप आकर देखें कि मैं फांसी पर कैसे चढ़ता हूं” अब तो वकील साहब ने अपने आपको रोक न सके रुंधे गले से वे बोले “यह दृश्य देखने का साहस तो मुझमे नही है अशफ़ाक़ हाँ तुम्हारी मज़ार पर अवश्य आऊंगा बार बार आऊंगा”
18 दिसंबर को जब जेल वालों ने उनकी अंतिम इच्छा पूछी तो उन्होंने मांग की ” नया चूड़ीदार पैजामा कुर्ता ,नई सिल्क की अचकन ,नया जूता ,नए मोजे, और फैजाबाद में जहाँ भी बढ़िया से बढ़िया इत्र मिले एक छोटी शीशी इत्र की मांग दी जाए” जेलवालों ने रातोंरात सब चीज़ों की व्यवस्था कर दी । 19 दिसंबर की भोर अशफ़ाक़ ने स्नान आदि कर कुरान शरीफ का पाठ किया और नए कपड़े पहनकर इत्र भी छिड़क लिया जब उन्हें फांसी के लिए ले जाया जाने लगा तो उन्होंने स्वरचित एक शेर कहा—
“तंग आकर जालिमो के जुल्म और बेदाद से, चल दिये सूए अदम जिन्दने फैजाबाद से”
जब वह फांसी के तख्ते पर जाकर खड़े हुए तो वहां उपस्थित अधिकारियों से उन्होंने कहा “बाहर मेरी माँ और भाई पीछे पड़े रहते थे कि अशफ़ाक़ तू शादी करले लेकिन मुझे कोई दुल्हन पसंद ही नही आती थी । आज मुझे मेरी पसंदीदा दुल्हन मिली है यह फांसी का फंदा ही मेरी असली दुल्हन है मैं उसका चुम्बन तो कर लूं ” यह कहते हुए उन्होंने फांसी के फंदे को चूमा और अंतिम शेर कहा—
” कुछ आरजू नही है , है आरजू तो इतना रख दे कोई जरा सी खाके वतन कफन में”
अशफ़ाक़ भारत माता की जय एवं वंदे मातरम का नारा लगाते फांसी पर झूल गए
जिस समय अशफ़ाक़ का शव फैजाबाद से शाहजनपुर ले जाया जा रहा था तो लखनऊ स्टेशन पर सैकड़ों की भीड़ जमा थी एक अंग्रेजी अखबार ने लिखा “लखनऊ की जनता अपने प्यारे अशफ़ाक़ के अंतिम पुण्य दर्शनों के लिए बेचैन होकर उमड़ आयी थी और वृद्ध लोग इस प्रकार रो रहे थे मानो उनका अपना ही पुत्र खो गया हो”
आगे हजेला जी लिखते है “अशफ़ाक़ की लाश क्या थी ऐसा मालूम होता था मानो वह सुख शांति से सो रहा हो। बड़े बड़े साहसियों का चेहरा फांसी के वक़्त बिगड़ जाता है। मगर अशफ़ाक़ के चेहरे पर शिकन न थी सिर्फ आखों के नीचे एक नीला धब्बा दिखता था जो फांसी लगने पर खून रुकने से वहां पर हो जाया करता है ।सबलोग फांसी के वक़्त की हिम्मत शांति और पाक खयाली से जो उनकी लाश के चेहरे पर फांसी लगने के इतने समय बाद भी साफ दिख रही थी यह देख कर वह खड़े सभी के सर श्रद्धा भाव से झुके हुए थे।
नितीश श्रीवास्तव
कायस्थ की कलम से
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